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01 2012

संसाधनों का संकट और ज्ञान-अर्थव्यवस्थाओं के वैश्विक प्रभाव

Lina Dokuzović

अनुवादक- रवि शेखर

वित्तीय संकट की गूंज वैश्विक स्तर पर सुनी जा रही है, जिसने दुनिया के बड़े  पूंजीवादी देशों से लेकर तथाकथित विकासशील'' देशों तक के घरों में ''संकट'' को एक आम शब्द बना दिया है। पूंजीवाद की तरह ही संकट भी जिन्दगी के हर पहलू का हिस्सा बन चुका है। यद्यपि, ''विकसित'' देशों में उत्पन्न इस संकट में वित्तीय पूँजी, असुरक्षित या जोखिम भरा कर्ज तथा बैंकों की ही प्रभावी भूमिका रही है, इन अभौतिक परिसंपत्तियों के पीछे की सच्चार्इ भौतिक संसाधनों पर पैदा हुए संकट तथा इसके फलस्वरूप पूरी दुनिया में हुए आजीविका के नुकसान में ही है। वित्तीय संकट को समझने के लिए इसे वैश्विक पूंजीवाद के वर्तमान चरण के सन्दर्भ में पढ़ना जरूरी है, जिसमें वह स्वयं को वास्तविक भौतिक संसाधनों, यथा जीवाश्म र्इंधन, साफ पानी या उपजाऊ मिटटी, की सीमाओं के सन्दर्भ में बदलने और अनुकूलित करने की कोशिश कर रहा है।

बाजार के असीमित अविनियमन के कारण तथा इसके प्रतिकूल प्रभावों पर ध्यान न देने से अब तक बचे हुए भौतिक संसाधन भी अपने अंत की ओर अग्रसर हैं।[1] इस परिघटना ने चतुर्दिक रूप से जटिल वित्तीय कटौती का समर्थन करने के साथ-साथ ऊर्जा उत्पादन, परिवहन व्यवस्था, भोजन और पानी की व्यवस्थाओं के लिए नयी प्रौद्योगिकी तथा पद्धति के विकास पर ही राजनैतिक और आर्थिक ध्यान केन्द्रित किया है, जिन सब का समर्थन व विकास ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था वाले क्षेत्रों में पैदा एवं संरक्षित ज्ञान से होना है। जबकि केवल यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया, या मघ्रेब[2] समूह आदि देश ही प्रतियोगी ज्ञान अर्थव्यवस्था के निर्माण की कोशिशों में नही लगे हैं, तब वर्तमान संकट इसकी वजह के रूप में देखा जा रहा है तथा उच्च शिक्षा को संकट की इस बीमारी के खिलाफ एक रामबाण के रूप में। वर्तमान संकट के दोनों पहलुओं, मुनाफा बनाने के लिए वित्तीय तथा प्रौद्योगिक नवाचार को कायम रखने तथा ठोस संसाधनों और इनसे सम्बंधित अभियांत्रिकी का दोहन, का समाधान इन ज्ञान अर्थव्यवस्थाओं को खोजना चाहिए, जिनका गठन और पुनर्गठन हर बार ''शिक्षा में संकट '' के नारे के तहत किया जाता रहा है।

 आधुनिकता के दौर में ज्ञान राज्य की संपत्ति होता था, यद्यपि, समकालीन संबंधों में, यह राष्ट्र-राज्य के दायरे से ऊपर हो गया है। एक तरफ जहाँ विश्वविद्यालय अविनियमित ट्यूशन फीस के माध्यम से लगातार छात्रों को कर्ज में डालते हुए मुनाफा पैदा करने का माध्यम बन रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मितव्ययिता के आधार पर  विश्वविद्यालय अपने विस्तारीकरण पर लगाम लगा कर व्यक्ति से लेकर विभाग तक, संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों तक, शहरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ती प्रतियोगिता का माहौल बना रहे हैं। हालाँकि, बाद वाले स्तर पर वित्तीय पूँजी से भी बड़ा संकट दिखता है। यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र ने, जो यूरोप का प्रतिस्पर्धात्मक ज्ञान-अर्थव्यवस्था का क्षेत्र है, ऐसी स्थिति बनायी है जिसमे नवाचार एवं संसाधनों की सुरक्षा हेतु शोध एवं प्रौद्योगिकीय विकास की बात करना आर्थिक एवं राजनैतिक तौर पर मजबूत बनने के लिए जरूरी बन गया है। ये नीतियां जनता के गमनागमन पर तथा इसके माध्यम से प्राप्त हो सकने वाले नयेपन (नवीनीकरण) पर आक्रामक नियंत्रण तथा उसके चलते होने वाले विस्थापन को उचित ठहराती हैं। इस प्रकार, समकालीन ज्ञान आधारित नीतियां सहभागिता के साथ साथ टकराव एवं एकजुटता का स्थान बनाते हुए आज व्यापक वैश्विक राजनीति के परीक्षण का ठिकाना बन गयीं हैं। यह विश्लेषण ज्ञान नीति के एजेंडे के इतिहास का अध्ययन करेगा ताकि संघर्ष के संदर्भों को समझा जा सके, तथा ज्ञान को औपचारिक शोध एवं ज्ञान के इर्द गिर्द होते संघर्षों, जिसमे मै भी शामिल रही हूँ, के सन्दर्भ में प्रस्तुत करेगा।


''शिक्षा में संकट'' तथा राष्ट्रीयता से ऊपर उठने का दौर

१९९९  के बोलोना घोषणापत्र पर हस्ताक्षर के बाद राष्ट्र-राज्य तथा निजी शेयर धारकों के बीच एक अनोखी साझेदारी विकसित हुई। यह साझेदारी राष्ट्रीयता से ऊपर उठ कर सक्रिय होगी तथा बोलोना प्रक्रिया के रूप में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की अब तक की सबसे बड़ी वैश्विक लहर के रूप में आंकी जायेगी। इस बोलोना सुधार प्रक्रिया की पहल पर यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र ने शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को  राष्ट्रीय संदर्भों से ऊपर उठा दिया, यद्यपि, इस प्रक्रिया की शुरुआत यूरोपीय यूनियन की स्थापना  के काफी पहले राष्ट्र-राज्य से ऊपर उठ कर शुरू किये गये संस्थागत प्रयासों में देखी जा सकती है। यूरोपीय ज्ञान अर्थव्यवस्था की संरचना को तथा आज बडे़ पैमाने पर पड़ते इसके प्रभाव को समझने के उद्देश्य से यह इतिहास असाधारण रूप से महत्वपूर्ण है। इसलिए, सबसे पहले मै इस प्रक्रिया का अवलोकन करुँगी जिसके तहत अन्य क्षेत्रीय बदलावों के परिप्रेक्ष्य में समकालीन विश्वविद्यालयों का गठन हुआ, और इसके बाद एक अलग कालक्रम के अंतर्गत यह देखूंगी कि किस प्रकार संकट के समयों में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के दबावों में ज्ञान नीतियों में सुधार / परिवर्तन किये गए।

यूरोप के उच्च शिक्षा मंत्रियों द्वारा '' विश्वविद्यालयों की जननी'' का दर्जा प्राप्त बोलोना विश्वविद्यालय में, जिसे पहला ''यूरोपीय शोध विश्वविद्यालय'' माना जाता है, बोलोना प्रक्रिया पर हस्ताक्षर किये गये। इटली की राष्ट्रीय एकता के एक प्रतीक के रूप में बोलोना  विश्वविद्यालय  की स्थापना सन  १०८८   में की गयी। रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा स्थापित पूर्ववर्ती मध्ययुगीन  विश्वविद्यालयों के विपरीत बोलोना  विश्वविद्यालय की स्थापना विज्ञान और शोध को केंद्र में रख कर की गयी। शोध को केंद्र में रखने के फलस्वरूप उठी एक दूसरी लहर ने ''आधुनिक विश्वविद्यालय'' की स्थापना करार्इ।[3]

आधुनिकता के उभार के साथ साथ राष्ट्र-राज्य व्यवस्था का आगमन हुआ और वहीं से आधुनिक विश्वविद्यालय बने।[4]  सन १८१०  में बर्लिन में ज्ञान के प्रशस्त उत्पादन के लिए एक सोची समझी राजनैतिक कोशिश के फलस्वरूप स्थापित हम्बोल्ट माडल के ढांचे में ही आधुनिक विश्वविद्यालय की बुनावट रखी गयी। इसमें शोध और प्राकृतिक विज्ञान की भूमिका शेष यूरोप के लिए एक माडल के रूप में पेश की गयी, जिसका केंद्रीय सिद्धांत ''विशिष्ट वैज्ञानिक या विद्वान के कार्य में शोध एवं शिक्षा का संयोजन''[5] माना गया। इसने ज्ञान उत्पादन की अवधारणा में ऐसे महत्वपूर्ण बदलाव किये जिसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की प्रारम्भिक पूंजीवादी अवधारणाओं तथा राष्ट्र-राज्य की ''ज्ञान की संपत्ति'' में बढ़ोत्तरी में व्यक्ति की भूमिका को खुला समर्थन दिया।

आधुनिक  विश्वविद्यालय की स्थापना और राष्ट्र के साथ इसके सम्बन्ध ने एक लंबी सुधार प्रक्रिया की शुरुआत की, जिसने आधुनिक  विश्वविद्यालय के लक्ष्य को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। आधुनिक विश्वविद्यालय की स्थापना के दो-सौवें वर्ष के उपलक्ष्य में २०१० में बुडापेस्ट-वियना सम्मलेन हुआ तथा वियना में समारोह आयोजित किये गए, जिस दौरान उच्च शिक्षा के लिए अखिल यूरोपीय माडल-यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र-को ''खुला'' घोषित किया गया। समकालीन ''शिक्षा में संकट''[6] के एक कथित हल के रूप में यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र को बोलोना प्रक्रिया के तहत लागू किया गया था। यह वाक्यांश काफी महत्वपूर्ण है जिसके अवलोकन से हमें शिक्षा नीतियों का इतिहास समझ में आता है तथा यह आज के दौर का ''संकट'' स्पष्ट रूप से समझने में सहायता करता है। इसलिए, बढ़ती हुर्इ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की सहायता हेतु उन ''संकटों'' के परिप्रेक्ष्य में हुए सुधार के अवलोकन के माध्यम से यह विश्लेषण जारी रहेगा।

'अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा एवं शिक्षा कानून   १६५८  के आगमन के पश्चात ही नीतिगत स्तर पर सर्वप्रथम इस उक्ति ''शिक्षा में संकट''-का इस्तेमाल हुआ। इसने एक ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत की जिसमें शिक्षा नीतियों का इस्तेमाल सबसे शक्तिशाली देश की हैसियत पाने के लिए हुआ, जिसने अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को बढाया। इसने आगे चल कर राष्ट्र-राज्य से ऊपर उठ कर ज्ञान क्षेत्र के विकास की प्रक्रिया की शुरुआत की। बचपन से स्नातकोत्तर की शिक्षा  की संकल्पना पेश करते हुए इस कानून ने, वैज्ञानिक और गणितीय शोध पर जोर देते हुए, शिक्षा के सभी स्तरों पर निजी निवेश की आधार-रचना की। इस कानून ने ''आपात सहायता'' के रूप में पहली बार संघीय पर्यवेक्षण में कमी की, जिससे कम ब्याज पर कर्ज में उछाल आया तथा समरूप शैक्षणिक पाठ्यक्रम अनुमन्य हुआ। इसने एक ऐसी संरचना की नींव रखी जिसने आगे चलकर अमेरिका में शिक्षा में सुधार की अन्य नीतियों को बढ़ावा दिया, और साथ ही दूसरे देशों में भी शिक्षा में सुधार का नया माडल पेश किया।[7]

 यह ''आपात सहायता'', दरअसल, सोवियत रूस के द्वारा १९५८ में स्पुटनिक छोड़े जाने की प्रतिक्रिया थी। स्पुटनिक संकट के तुरंत बाद, १९५८ में अमेरिका में दो बड़े सुधार कार्यक्रम लागू किये गये, और शीत युद्ध के दौरान अंतरिक्ष की दौड़ में शामिल होने को दुनिया में सबसे शक्तिशाली होने के बतौर समझा गया।[8] एक प्रक्रिया ने जहाँ शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन किये, वहीं दूसरी ने अब तक की नैशनल ऐडवायीजरी कमिटी फार एयरोनौटिक्स (एन.ए.सी.ए.) में एक बड़ा बदलाव करते हुए इसे नैशनल एयरोनौटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्टेशन (एन.ए.एस. ए., नासा) के रूप में दुनिया में शोध के क्षेत्र में सबसे बड़े संस्थान के बतौर विकसित किया। इस अन्तरिक्षीय दौड़ के दौरान हुए प्रोद्योगिकीय विकास को कम करके नहीं आँका जा सकता। यह एक ऐसे युग के बतौर चिन्हित हुआ जब अमेरिका एक प्रोद्योगिकीय ताकत के रूप में और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक आर्थिक एवं राजनैतिक महाशक्ति के रूप में पुनर्संगठित हो सका। नाभिकीय ऊर्जा के दोहन और परिवहन, दोनों ही क्षेत्रों में, आज तक, नासा में हुए शोध कार्यों की वजह से कुछ सबसे मत्वपूर्ण आर. टी. डी. प्राप्त हुए हैं।

       द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आर्थिक, राजनैतिक और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में पुनर्संगठित एवं मजबूत बनने की प्रक्रिया युद्ध से टूट चुके यूरोप के लिए काफी महत्वपूर्ण थी और १९५८ में यूरोप में सुधार की प्रक्रियाएं बडे स्तर पर लागू की गयीं। इस वर्ष बेल्जियम, फ्रांस, इटली, लग्सम्बर्ग, नीदरलैंड तथा पश्चिमी जर्मनी द्वारा रोम की संधि पर हस्ताक्षर किये गए। इस संधि ने यूरोपीयन इकोनोमिक कम्युनिटी (र्इ.र्इ.सी., यूरोपीय आर्थिक समुदाय) और यूरोपीयन एटामिक एनर्जी कम्युनिटी (युरेटोम, यूरोपीय परमाणविक ऊर्जा समुदाय) जैसे दो अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण किया जो राष्ट्र-राज्य से ऊपर उठने के सिद्धांत पर आधारित थे। बाद में इसने यूरोपियन कोल एंड स्टील कम्युनिटी (र्इ.सी.एस.सी., यूरोपीय कोयला व इस्पात समुदाय) के रूप में राष्ट्र-राज्य से आगे बढ़ कर एक ऐसा माडल विकसित किया जिसने युद्ध को न केवल ''असोचनीय'' बल्कि ''भौतिक रूप से असंभव'' भी बना दिया। र्इ.सी.एस.सी. ने कोयले और स्टील को साझा करने के लिए एक संरक्षित बाजार हेतु एकीकृत पश्चिमी यूरोप का निर्माण किया। अस्त्र शस्त्र के निर्माण के लिए कोयला और स्टील व्यापार को अत्यंत जरूरी और संरक्षणीय माना गया। र्इ.सी.एस.सी. ने अफ्रीका में यूरोप की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उत्पादन में बढ़ोत्तरी को जरूरी समझा और इसे सुनिश्चित किया।[9] संसाधनों, सेवा तथा वस्तुओं के व्यापार में बाधाओं को हटाने के लिए गठित प्रारंभिक उदारवादी संरचनाओं एवं संसाधनों की सुरक्षा के लिए र्इ.सी.एस.सी. बाद में र्इ.र्इ.सी. और युरैटोम जैसे अखिल यूरोपीय संगठनों में विस्तृत हुआ, जिसने आगे चलकर मास्त्रीच संधि  का आधार तैयार किया और फलस्वरूप यूरोपीय यूनियन की स्थापना की। तब से आज तक की यूरोपीय यूनियन की सभी संधियां मूल रोमन संधि के संशोधित रूप हैं। इसके अतिरिक्त , सभी वर्तमान नाभिकीय मुद्दे मूल यूरैटोम संधि के अंतर्गत ही आते हैं।

जहाँ एक ओर र्इ.र्इ.सी. ने यूरोपीय यूनियन में विस्तार पाया, वहीं वास्तविक यूरैटोम लक्ष्य आज कादार्ख, फ्रांस में एक नाभिकीय संलयन रिएक्टर-इंटरनैशनल  थर्मोन्यूकिलयर एक्सपेरीमेंटल रिएक्टर (आर्इ.टी.र्इ.आर.) के बतौर अस्तित्व में है। जिस प्रकार नाभिकीय प्रोद्योगिकी में यूरोप के प्रभुत्व को बढाने के लिए र्इ.र्इ.सी. को युरैटोम के समानांतर संगठित किया गया, उसी प्रकार यूरोपीय यूनियन के समानांतर विकास और विस्तार के जरिये आर्इ.टी.र्इ.आर. और इसके जरूरी आर.टी.डी. को प्रोत्साहित किया जा रहा है। सन २०५० तक आर्इ.टी.र्इ.आर. को ऊर्जा क्षेत्र में यूरोप की प्रेरक शक्ति बनने के रूप में देखा जा रहा है।[10] आर्इ.टी.र्इ.आर. और इसके नाभिकीय विकास कार्यक्रम यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के साथ साथ चलते हैं, और यूरोपीय शोध क्षेत्र (र्इ.आर.ए.) के केन्द्र में हैं, जो यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र के साथ मिलकर काम करता है।[11] जब यूरोपीय साम्राज्यवादी विस्तारवाद के प्रतीक वियना के होफ्बर्ग महल में औपचारिक तौर पर राष्ट्र-राज्य से ऊपर उठ कर ज्ञान आधारित क्षेत्र के गठन का पहला उत्सव मनाया गया, ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि वियना में ही यूरोपीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (इ.ए.र्इ.ए.) स्थित है।[12]


अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम

जबकि ज्ञान और प्रोद्योगिकीय विकास ने महाशक्तियों  के निर्माण में एक मुख्य भूमिका अदा की, दूसरी बार उत्पन्न हुए ''शिक्षा में संकट'' ने दुनिया के दूसरे कोने, दक्षिणी देशों, में सुधार की प्रक्रियाओं को लागू कराया।[13] यह तब हुआ जब विश्व में प्राकृतिक  संसाधनों की सीमा स्पष्ट हुर्इ, अर्थात १९७० के अंत एवं १९८०  के शुरुआती दिनों में जब कर्ज संकट, तेल का संकट और मुद्रास्फीति  जनित मंदी उत्पन्न हुर्इ। विकास के नाम पर चली सुधार की इस नयी लहर को दूर स्थित  पूर्व-उपनिवेश देशों में उन देशों और बहुराष्ट्रीय  वित्तीय संस्थानों ने लागू किया जो शीत युद्ध के दौरान मजबूत हुए थे। यह ऐसा समय था जब ''विकसित'' देशों की अर्थव्यवस्थाओं के सामने नर्इ चुनौतियाँ खड़ी हुर्इं, तथा अधिकांश संकट की वास्तविक जड़ें विश्व के दक्षिण-स्थित कथित ''विकासशील'' अथवा ''अविकसित'' देशों में थीं। युद्ध से बेहाल यूरोप का एक आर्थिक प्रतिस्पर्धी के रूप में दुबारा पुनर्निर्माण करने के लिए अमेरिका द्वारा ब्रेटन वूड्स  नामक एक आर्थिक सहायता प्रणाली विकसित की गयी, जिससे विश्व बैंक (डब्ल्यू.बी.) तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा  कोष (आइ.एम.एफ.) की स्थापना हुर्इ। चूंकि शीत युद्ध के दौरान हुर्इ हथियारों की दौड़ और अन्तरिक्षीय दौड़ के कारण, अमेरिका प्रोद्योगिकीय के मामले में अग्रणी बन गया था, यूरोप के आर्थिक-राजनैतिक पुनर्संरचना के दौरान, विश्व के दक्षिणी देशों में खुले बाजार के विकास और वहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए आपस में उनके समान हित विकसित हुए। कर्इ उत्तर-औपनिवेशिक देशों ने अपनी  पुनर्संरचना  के दौरान कम्युनिस्ट अथवा सोशलिस्ट विचारधारा को चुना। यद्यपि, डब्ल्यू.बी. और आइ.एम.एफ.के निर्देशन में १९८० के दशक में विकास सहायता के रूप में  स्ट्रकचरल एडजस्टमेंट पोलिसिज  (एस.ए.पी.) के नाम पर विशिष्ट सुधार की नीतियों का निर्माण किया गया जिन्होंने खुले बाजार के निर्माण का आधार तैयार किया। इन सुधार नीतियों ने विदेशी निवेश की बाधाओं को दूर करते हुए निजीकरण और अर्थव्यवस्था व जनता के हक के विनियमन को बढ़ावा दिया। शिक्षा में सुधार ने एस.ए.पी. में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

जनता के सभी हकों के, मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार, जल और जमीन, के व्यवस्थित निजीकरण, जो एस.ए.पी. के साथ शुरू हुए, नतीजे आज भी मौजूद हैं, क्योंकि स्वास्थ्य, शिक्षा और जमीन पर वित्तीय तौर पर समर्थ समुदाय का ही नियंत्रण रहा और साथ साथ इस पूरी प्रक्रिया में स्थानीय भ्रष्टाचार भी हावी रहा। जार्ज कैफेंजिस के अनुसार ''१८८६ तक एस.ए.पी. के परिणाम स्पष्ट हो गये. १८८० से १८८५ के बीच सहारा रेगिस्तान के दक्षिण के अफ्रीकी देशों में सामाजिक व्यय (शिक्षा सहित) २६% कम हो गया। आंकड़े बताते हैं कि कर्इ देशों में (शिक्षा में) पंजीकरण में ऐतिहासिक गिरावट आर्इ।"[14] इन कठोर उपायों के केवल ये नतीजे निकले कि शिक्षित और अशिक्षित के बीच का फासला बढ़ गया। इसने एक तरफ तो अभिजात शिक्षण और शोध संस्थानों के लिए खर्च में बढ़ोत्तरी की और दूसरी तरफ अकुशल मजदूरों की भीड़ पैदा की। एस.ए.पी. के खिलाफ कर्इ आन्दोलन पुलिसिया दमन और हत्याओं के शिकार हुए, तथा शिक्षण संस्थानों के आस पास अथवा कैम्पस के अन्दर पुलिस की मौजूदगी और कक्षाओं के अन्दर मुखबिरों की उपस्थिति सुनिश्चित हुर्इ। इस दौरान, राज्य के दमन को कम करने के बहाने शिक्षण संस्थानों को राज्य द्वारा धन आवंटन भी बंद कर दिया गया।[15] कैफेंजिस के अनुसार ''[...] अफ्रीका के राज्य का मुख्य काम एस.ए.पी. के अनुपालन हेतु जरुरी दमनात्मक शक्ति उपलब्ध करना ही है''[16]

 इन एस.ए.पी. ने सफलतापूर्वक दुनिया के दूसरे देशों में उच्च शिक्षा में भविष्य में होने वाले सुधार कार्यक्रमों के लिए मार्ग प्रशस्त किया, तथा यह प्रदर्शित किया कि शिक्षा का स्तर जितना ऊंचा होगा, सामाजिक लाभ भी उतना ही ज्यादा होगा, बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण रूप से, निजी क्षेत्र का लाभ उतना ही ज्यादा होगा। डब्ल्यू.बी. के शोध ने यह भी दावा किया कि खर्च में कटौती ''प्रतिस्पर्धा को बढ़ाती'' है लेकिन केवल व्यकितगत रूप में विद्वानों या मजदूरों के बीच ही नही। तथापि यह अंतर्राष्ट्रीय बाजार में न्यूनतम मजदूरी पाने वाले मजदूरों में विदेशी निवेश की चाहत को बढ़ावा देती है।[17] काफेंजिस ने इन नीतियों के परिणामों को यों विस्तार से बताया :

      ''दुनिया के किसी भी कोने में अपने दूसरे साथियों की तरह अफ्रीका के युवा भी शिक्षा को एक बेहतर भविष्य और सुरक्षित जिन्दगी की चाभी के बतौर देखते हैं, अत: वे इसे पाने के लिए महान त्याग भी करते हैं। [...] , जीवन निर्वाह के स्तर से भी नीचे की मजदूरी पा कर परिवार और समुदाय किस तरह खर्च की अदायगी कर पायेंगे, जबकि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष मजदूरी में और कमी लाने की बात करते हैं? कर्ज की प्रणाली का संचालन, जो कि भारी संख्या में छात्रों को कर्ज उपलब्ध करा सकती हो, तभी हो पायेगा जब वास्तविक मजदूरी वर्तमान स्तर से काफी हद तक बढार्इ जाये। परन्तु, एस.ए.पी. का प्रमुख उद्देश्य मजदूरी में कटौती करना है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय श्रम बाजार में अफ्रीका के मजदूरों को ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बनाया जा सके। इससे यह पता चलता है कि वास्तविक मजदूरी (अगर कभी बढ़ी तो भी) अभी लम्बे समय तक नहीं बढेगी। एशिया से लेकर दक्षिण अमेरिका तक, तीसरी दुनिया के सभी कर्जदार देशों को विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष  कोष के द्वारा यह कहा जा रहा है कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए उन्हें अपने यहाँ कामगारों की मजदूरी में कटौती करनी पड़ेगी" l[18]

इन ढांचागत सुधारों के बाद, ''वाशिंगटन कन्सेसस'' के रूप में एस.ए.पी. का एक विशेष पैकेज बना, जिसे बर्लिन की दीवार और कम्युनिस्ट ब्लाक के टूटने पर पूर्वी यूरोप में लागू किया गया। इसने भी पूंजीकरण और विदेशी निवेश के लिए इस क्षेत्र को खोल दिया, तथा निजीकरण और समरूपता को सर्वत्र बढ़ावा देते हुए आर्थिक तौर पर राज्य की भूमिका को कम कर दिया। शिक्षा में सुधार और सर्वत्र समरूपता लाने के उद्देश्य से हो रहे बदलावों में सबसे खास बात यह रही कि इसे यूरोपीय संघ में शामिल होने की योग्यता के मानदण्ड के रूप में लागू किया गया। उदाहरण के लिए, बोलोना प्रक्रिया यूरोपीय संघ के बजाय यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिये उम्मीदवार देशों में पहले लागू की गयी। 

एस.ए.पी. के क्रियान्वयन ने ''विकास'' की इस असमान प्रक्रिया को संभव बनाने में बड़ी भूमिका अदा की। जहां एक ओर इन सुधार प्रक्रियाओं को ''विकास में प्रगति के एक सटीक पैमाने के रूप में प्रयोग किया गया वहीं दूसरी ओर स्वयं के मानकों के अनुसार वास्तविक विकास को दबाया गया। एकता एवं अलगाव के बीच इन्होंने दोहरा मानदंड अपनाया, जो कि इन प्रक्रियाओं के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्लेषण से हमें दिखता है। उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ ने वस्तुओं, सेवाओं, पूँजी, और नागरिकों की गतिशीलता को तो बढ़ावा दिया, लेकिन साथ ही साथ द्विपक्षीय संधियों के अंतर्गत, प्रव्रजन के खिलाफ कड़े सीमा कानून बनाये। डबिलन २  इटली और लीबिया के बीच समझौते एवं ट्यूनीशिया के साथ की प्रस्तावित संधि इसके उदाहरण हैं।[19] जब कि कर्इ देश इन अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को वैधता दिलाने और लागू करने में तत्परता से लगे हैं,  अंतर्राष्ट्रीय नीतिगत सम्बन्ध, वैश्विक एकता का प्रतीक होने के बजाय, अपनी संपत्ति को सफलतापूर्वक अधिकतम स्तर पर पहुंचाते हुए स्वयं को मजबूत बना लेने के रूप में ज्यादा विकसित हुए। इन तमाम  अंतर्राष्ट्रीय संकटों के आपसी सम्बन्धों को छिपाकर और उन्हें आपस में विभाजित करके स्वतंत्र राष्ट्रीय परिघटनाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, जिन्हें वे राष्ट्र स्वयं हल करें।


विस्थापन

संकट का यह विभाजन गैरबराबर विकास के साथ काम करता है और विस्थापन की वैश्विक प्रक्रिया के माध्यम से इसे ढँक दिया जाता है। समाधान के तौर पर नर्इ रणनीतियां प्रस्तावित की जाती हैं जिनमें ज्ञान की अर्थव्यवस्थायें इन विभाजनों को बनाने और बरकरार रखने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं और वे ही समझौतों और खर्च में कटौती एवं निजीकरण के खिलाफ संघर्षों, दोनों के स्थान बन जाती हैं। मगर, विस्थापन का महत्व इन संकटों के बीच कोर्इ कड़ी देखने के साधन-रूप से कहीं अधिक है। आज,  वैश्विक पूंजीकरण और ''विकास'' के विध्वंसकारी परिणामों का विश्लेषण करने के लिए विस्थापन को समझना सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है।

विस्थापन को समझने के प्रस्थान बिंदु के लिए कर्इ बातें महत्वपूर्ण हैं, जैसे गरीबी, शहरीकरण, विकास, प्रव्रजन, ज्ञान आधारित प्रव्रजन / प्रतिभा पलायन, संसाधन, जीवन और आजीविका आदि। महानगरीय केन्द्रों में नवीनीकरण के कारण और वांछित स्थिति प्राप्त करने तथा ऐसा करने के लिए अपनाये गए तौर तरीकों के कारण महानगरों की परिधि पर प्रकट तौर पर अव्यवस्था उत्पन्न होती है। जैसे, ''विकास'' की प्रक्रिया में मजदूरों की उपलब्धता के लिए पुराने औद्योगिक शहरों के बाहरी क्षेत्रों में मलिन बस्तियां बसा दी जाती थीं। श्रम के वैश्विक विभाजन को बढाते हुए, सुन्दरीकृत शहरों या राष्ट्र-राज्य से उठकर बनाये गये क्षेत्रों की कठोर सीमाओं के साथ साथ, यह प्रक्रिया विस्तृत रूप में फैलती है। ऐसे में, अकेले-अकेले विभिन्न देश इस शोषण और संकट के अंतर्राष्ट्रीय बंटवारे का जरिया बन जाते हैं।

हम प्रवास की परिघटना को वैश्विक स्तर पर देख सकते हैं। काम और अध्ययन के लिए वांछित गतिशीलता मीडिया में दृष्टिगत है, जब कि अप्रलेखित मजदूर, विस्थापित लोग और बिना कागजात के हमेशा के लिए मिटा दिए गए लोग, अर्थव्यवस्था के एक विशिष्ट तबके को लाभान्वित करते हैं तथा यह पूरी प्रक्रिया सुन्दर और सुरक्षित किलों से छिपा कर चलार्इ जाती है। लगातार हाशिये पर धकेला जाना और अलगाव पृथक और मलिन बस्तियों का निर्माण करता है, एकता तोड़ता है, भेदभाव को उचित ठहराता है और सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न कर देता है।

सफलता और असफलता की दौड़, पूरी दुनिया में, प्रतिभा की आड़ में संचालित हो रही है। यह दौड़, खुले बाजार में सभी के लिए मौकों की बराबरी के तर्क पर स्वयं को जायज ठहराती है और इस मत का समर्थन करती है कि जो कड़ी मेहनत करते हैं वे उन्नति करते हैं और जिनमें पर्याप्त उत्पादकता नहीं है या जो उस गति से साथ नहीं चल सकते, वे पूरी प्रणाली को नुकसान पहुंचाते हैं, और अपनी योग्यता के अनुसार ही नतीजे प्राप्त करते हैं। पक्षपात वाली यह संकल्पना उन प्रवासी कामगारों के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा करती है, जिन्हें राज्य ने काम करने के लिये अनुमति नहीं दी है और फलत: जो अनधिकृत या अवैध रूप से काम करते हैं, या बेरोजगार हैं। प्रतिभा के आधार पर चलती यह प्रक्रिया विकास की दौड़ में देशों का स्थान तय करने से लेकर किसी गाँव में पानी के लिए एक चापाकल लगाये जाने जैसी सकारात्मक कार्रवाईयों की योग्यता एवं आवश्यकता तय कर रही है। पूंजीवाद का "आर्थिक प्रगति और विकास'' एक मनुष्य की आजादी, अधिकार और आजीविका का दूसरे व्यक्ति के साथ वैसे ही विनिमय करता है जैसे मुद्रा के जरिये होता है।[20]

बढ़ती हुर्इ ऊर्जा खपत के कारण सीमित संसाधनों तथा जीवाश्म र्इंधन का प्रबंधन ''विकसित'' देशों के लिए प्राथमिक बना हुआ है। यद्यपि, ''विकास'' की सीढ़ी पर सबसे ऊँचा स्थान और ऊर्जा की बढ़ी हुर्इ खपत, दोनो की कीमत ''विकासशील'' देशों के द्वारा ही चुकार्इ गर्इ है- ७५%  से ज्यादा विषाक्त उत्सर्जन, जिसने जलवायु का वर्तमान संकट खड़ा किया है, दुनिया के केवल २०% हिस्सा करता है, जबकि जलवायु संकट का ८०%  से अधिक प्रभाव ''विकासशील'' देशों पर पड़ता है।[21] विकसित देशों द्वारा अत्यधिक उत्सर्जन ने ''विकासशील'' देशों के लिए उपलब्ध पर्यावरणीय स्थान सीमित कर दिया है।[22]

जलवायु परिवर्तन ऊर्जा संकट का नकारात्मक पहलू है, और लगातार बढती हुर्इ ऊर्जा की कमी सैन्यकरण और जमीन की लूट को ''न्यायोचित'' ठहरा रही है। वाशिंगटन पोस्ट ने हाल में इस रुझान को यह कहते हुए रेखांकित किया कि ''आज बाजार में र्इथोपिया की कृषि भूमि की मांग सबसे अधिक है।''[23] इस ''रुझान'' में जमीन और अन्य संसाधनों का खरीदा जाना, उपजाऊ भूमि, फसल, साफ पानी के भण्डार, या बाँध, बिजली संयत्र आदि की सुरक्षा निजी सेना से कराया जाना-अगर राज्य के द्वारा यथोचित दमन न हो पा रहा हो- आदि शामिल हैं। इस प्रकार, पूरे समुदाय का विस्थापन, पारितंत्र का विध्वंस और अन्य  वैश्विक या ग्रहीय दुष्परिणाम अवश्यम्भावी हो जाते हैं।

 अब हम वहीं लौटते हैं जहां से यह विश्लेषण शुरू हुआ था यानि उस वित्तीय संकट पर जो धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले रहा है। अगर व्यापक रूप से स्वीकृत  ''कारण'' और ''प्रभाव'' को उलट दिया जाये, तो वित्तीय पूँजी और इसकी कमियां सीमित प्राकृतिक  संसाधनों के सन्दर्भ में एक लचीली अर्थव्यवस्था की अमूर्त प्रतिक्रिया के रूप में सामने आएंगी। संसाधन का सीमित होना और बिना विनाश किये उत्पादन करने में पूँजी की अक्षमता, अस्थिर विध्वंसकारी पूँजी के मूल में या प्रतिबिम्ब के तौर पर सामने आयेंगे बजाय इसके कि इसका निदान पूँजी के द्वारा संभव हो। दुनिया भर में होने वाले पर्यावरण और आजीविका के नुकसान को संकट के हल में अपरिहार्य समझने के बजाय एक ऐसे मूल प्रभाव के रूप में देखा जायेगा जिसे अब यूँ ही दरकिनार नहीं किया जा सकता। सारहीन श्रम, ज्ञान नीतियां और विस्थापन आदि के माध्यम से वर्तमान संरचना इस संकट से निरंतर जूझने की कोशिश में है, जब कि यह समझना जरुरी है कि अपने आप में यह पूरी प्रणाली ही एक संकट है।


ज्ञान एकजुटता

आज शिक्षा और ज्ञान-उत्पादन समाज में बदलाव के प्रमुख स्थान हैं। एक तरफ इनमें उन बदलावों का केंद्रीय तंत्र निहित है, और दूसरी तरफ यह जन साधारण को अकुशल मजदूरों में परिणत करते हैं। ज्ञान के पदार्थिकरण या शिक्षा सुधार के खिलाफ संघर्ष की भूमिका निर्णायक है, क्योंकि यह आज की सबसे गहरी प्रक्रियाओं में से एक पर वार होगा। श्रम के  वैश्विक विभाजन एवं ज्ञान तक पहुँच के बीच की उभयनिष्ठ कड़ियों की व्याख्या व परीक्षण, सहभागिता और जिम्मेदारी को समझने के क्षेत्र में और दमन के वैश्विक स्वरूपों के खिलाफ पार-सामुदायिक एकजुटता बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यदि संकट की प्रचलित अवधारणा को पलट दिया जाये और ज्ञान को नीति निर्धारण के केंद्र में स्वीकृत किया जाये तो हमें ज्ञान की भूमिका को निश्चित तौर पर पलट देना होगा ताकि इसे एक मूलभूत ताकत के रूप में देखा जा सके।

हाल के वर्षों में ज्ञान के इर्द गिर्द दुनिया भर में कर्इ आन्दोलन खड़े हुए। उदाहरण के लिए, यूरोप में २००८-२०१० के दौरान चले विश्वविद्यालयीय संघर्षों को खास तौर पर बोलोना प्रक्रिया द्वारा किये जा रहे सुधार ने ही उत्साहित किया। दशकों से एस.ए.पी. और विश्वविद्यालय के नव उदारीकरण का विरोध होता रहा है। अमेरिका और ब्रिटेन में ऊँची फीस और छात्रों को कर्ज की व्यवस्था है, इन देशों में शिक्षा के लिये सरकारी अनुदान में कटौती और कर्ज के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। ये प्रदर्शन अपने आकार, जोश, सघनता और आपस में संचार और सम्बन्ध आदि के मामले में लगातार बढ़ रहे हैं, राष्ट्रीय सीमाओं से निकल कर सम्बन्ध बनाये गये हैं तथा शिक्षित बेरोजगारों और गैर मान्यता प्राप्त कामगारों की स्थितियों के साथ समानता पहचान रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय बैठकों, सम्मेलनों और विरोध प्रदर्शनों, यथा २०१० में वियना में यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र के खोले जाने के उत्सव के खिलाफ प्रदर्शन की शुरुआत ने संघर्ष के नए स्थानों का सृजन और विस्तार किया है। जब कि हाल के वर्षों में हुए विश्वविद्यालयीय विरोधों को मीडिया ने बाद के वर्षों में हुए दूसरे विद्रोहों की तुलना में काफी कम तवज्जो दी और जबकि अधिकांश लोग शायद मीडिया में हुर्इ गंभीर किन्तु काफी कम चर्चा के कारण, इन  विश्वविद्यालयीय विरोधों को अपरिहार्य बोलोना प्रक्रिया के क्रियान्वयन अथवा उच्च शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ असफल मानते हैं, परन्तु यह खास तौर पर ध्यान देने वाली बात है कि वे आंदोलन अभी खत्म नहीं हुए हैं। इन्होंने केवल अपना स्थान बदला है। इन संघर्षों को दरकिनार नही किया जाना चाहिये अथवा भुलाया नहीं जाना चाहिए। इन आन्दोलनों ने अनेक महत्वपूर्ण सबक दिए हैं तथा उन्हें एक जीवन्त और लचीली ताकत के रूप में देखने की जरूरत है।

फरवरी २०११ में, ''खर्च में कटौती के खिलाफ  विश्वविद्यालयीय संघर्ष'' नामक ''शिक्षा में संघर्ष'' की एक अंतर्राष्ट्रीय बैठक पेरिस में की गयी।[24] यह बैठक ट्यूनीशिया की क्रान्ति के तत्काल बाद हुर्इ, जिसने मीडिया के ध्यानाकर्षण और संघर्ष में बदलाव और एकजुटता के मामले में बड़ी भूमिका निभार्इ। इस बैठक में भाग लेने के लिए चले कर्इ त्युनिशियाई आन्दोलनकारी यूरोपीय संघ की सीमा पर रोक लिए गए और पेरिस नही पहुंच पाने के कारण इस बैठक में सम्मिलित नहीं हो सके। प्रदर्शन जारी रहा और कुछ  त्युनिशियाई छात्र शामिल भी हुए। इन  त्युनिशियाई छात्रों के द्वारा एक घोषणापत्र जारी किया गया, जिसमें इस बैठक में निहित संघर्ष के बिन्दुओं को पूरे मघ्रेब देशों में फैल चुके  त्युनिशियाई विद्रोह से जोड़ कर देखे जाने की मांग की गयी। इसके उपरान्त एक घोषणापत्र जारी हुआ जिसमें सम्पूर्ण भूमध्य सागर के दोनों ओर के क्षेत्रों में संघर्षों की एकजुटता के महत्व की वकालत की गयी। २९ सितम्बर से २ अक्तूबर तक ''छात्र, बेरोजगार, अनियत / अनिश्चित कामगार और यूरोप तथा उत्तर अफ्रीका के सक्रिय कार्यकर्ता  ट्यूनीशिया  में हुर्इ  अंतर्राष्ट्रीय बैठक रेस्यु दे ल्युट, (फ्रेंच नाम, जिसका हिंदी अर्थ होता है- संघर्षों का ताना-बाना) में शामिल हुए, ''ताकि [...], अपने ज्ञान को साझा किया जाए और आपसी समन्वय के साथ संघर्ष किया जाय'' बयान में यह दावा किया गया कि:

                  ''पिछले कुछ महीनों में सम्पूर्ण उत्तरी अफ्रीका में फैल चुके संघर्षों ने पूरी दुनिया को संबोधित किया [...], दुनिया भर के आर्थिक संकट के सन्दर्भ में देखा जाये तो, बेन अली या मुबारक के तख्तापलट और यूरोप के संघर्ष के कर्इ कारण आपस में समान अथवा उभयनिष्ठ हैं [...], हम अपने वर्तमान दु:ख के खिलाफ और मुक्ति की तथा अपनी सामूहिक संपत्तियों को फिर से हासिल करने की प्रक्रियाओं के मार्फत नए सामाजिक सम्बन्धों के निर्माण के लिए क्रान्ति कर रहे है। ये संघर्ष उन स्थानों का निर्माण कर रहे हैं जिन्हें सत्ता लगातार खंडित करने और दबाने की कोशिश करती रही है।"[25]

मघ्रेब देशों में फैले विद्रोह को मीडिया के माध्यम से मिले भारी ध्यानाकर्षण ने दुनिया भर में हो रहे दूसरे आन्दोलनों को काफी प्रोत्साहित किया। ''वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो'' से लेकर लुब्जाना के ''बोज जा'' तक, सार्वजनिक स्थानों, वित्तीय केन्द्रों पर डेरा डालने अथवा कब्जा करने जैसे आन्दोलन दुनिया भर में हुए। १५ अक्तूबर २०११ को वैश्विक अभियान दिवस मनाया गया जिसमें आज तक की सबसे बड़े पैमाने की और सबसे बड़ी संख्या में भागीदारी हुर्इ।[26] जब कि मीडिया ने कर्इ संघर्षों के शुरू होने के समय और फैलने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभार्इ है, इनमें जो संचार और समानतायें विकसित हुर्इं वे इनके द्वारा एक-दूसरे से सीखने और आपस में संचार की एक लम्बी प्रक्रिया का नतीजा हैं। इन संघर्षों के  अंतर्राष्ट्रीय स्वरूपों में ढलने के साथ साथ इस बारे में समझ विकसित हुर्इ कि किस प्रकार साझा संघर्ष के तमाम मुद्दे आपस में जुड़े हुए होते हैं। एक बदलाव अभी प्रक्रिया में है, किन्तु अधिकांश मामलों में यह किसी सोची समझी कोशिश का नतीजा नहीं है, बल्कि, हमारे इर्द गिर्द की लगभग एक समान परिस्थितियों के खिलाफ हो रही प्रतिक्रिया के रूप में हैं।

संकटों के आपस में जुड़ाव का उपयोग संघर्षों को व्यापक करने में होना चाहिए, क्योंकि संकटों का पृथक्करण संघर्ष को खंडित करने जैसा है। निगमित विश्वविद्यालयों के खिलाफ लड़ाई बैंकों के खिलाफ लड़ाई का एक हिस्सा है। बैंकों के खिलाफ लड़ाई जमीन की लूट के खिलाफ लड़ाई का एक हिस्सा है। अत: इन मुद्दों की जटिलता को समझना जरूरी है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इनकी समानता, सहभागिता अथवा विभेद और वर्तमान में वैश्विक संबंधों का उलझाव समझने की प्रक्रिया में शामिल किया जाना जरूरी है। जबकि यह ''संकट'' कई ऐसी नीतियों का संचालन कर रहा है जिनका ज्ञान-उत्पादन में हस्तक्षेप बढ़ाना ही मूल उद्देश्य है, हम जैसे सांस्कृतिक कार्यकर्ता, सामाजिक तौर पर सक्रिय लोग और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि असल सामाजिक संकट में दखल दें, इसे  समझें कि पूरी दुनिया में चल रही विस्थापन की प्रक्रिया के द्वारा किस प्रकार हमारी पृथ्वी को प्रभावित किया जा रहा है, और यह देखें कि ''शिक्षा में संकट'' वास्तविक रूप में कहाँ है?

वित्तीय संकट अथवा आर्थिक स्थिति को प्रशस्त संघर्ष के केंद्र में रखा जाना संघर्ष के असुरक्षित होने का बोध कराता है। ऐसा कोई प्रभावी संघर्ष नहीं हो सकता जो उस ढांचे में प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न करे, जो न्यायोचित रूप से स्वयं को जारी न रख सके। यह विभिन्न संघर्षों को विखंडित करता है, भले ही वे आपस में सघनता से जुड़े हों। एक ऐसी संरचना में जहाँ संकट ही कारण है और ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था प्रभाव, हमें ज्ञान आधारित संघर्ष में जरूर एकजुट हो जाना चाहिए, ताकि इन संघर्षों में बसे ज्ञान को समझा जाये और एक समान ज्ञान के आधार पर संघर्ष का निर्माण किया जा सके,[27] ताकि खर्च में कटौती और-बडे़ अधिवेशनों के आयोजन में, बयानों के प्रकाशन में, मानव ध्वनि-विस्तारकों के निर्माण में या स्वायत्त शिक्षा समूहों के निर्माण में-राज्य के दमन से निपटा जा सके, ताकि उन सभी ज्ञान के आधार पर नए समुदायों और समान संरचनाओं का पुनर्निर्माण किया जा सके। वह संघर्ष कैसा होगा जो आर्थिक और राजनैतिक दमन के विरोध के रूप में न खड़ा हुआ हो, बल्कि अंतर सामुदायिक, अंतर्राष्ट्रीय (यानि राष्ट्रों को विभाजित करने वाली सरहद को न पहचानने वाले) संघर्षों के, गैर मान्यता प्राप्त समान ज्ञान के बल पर खड़ा हुआ हो? क्या होगा, अगर भूमि के ज्ञान का उपयोग जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ने में किया जाये, प्रव्रजन में निहित ज्ञान का उपयोग सीमाओं को समाप्त कर देने के लिए किया जाये, विस्थापन के ज्ञान का उपयोग संपत्ति के पुनर्वितरण के लिए किया जाये, निजीकरण और कटौती के ज्ञान का उपयोग संघर्षों से सीखने के लिए सामान्य स्वायत्त स्थानों के निर्माण के लिए किया जाये? और क्या होगा अगर आत्म सशक्तिकरण के लिए पार-सामुदायिक औजार के रूप में इस ज्ञान को मान्यता प्राप्त ज्ञान से सम्बद्ध कर दिया जाये?

 



[1] उदाहरणार्थ     रिचर्ड हैंबर्ग  - पिक एवेरी थिंग : वेकिंग अप टू ए सेंचुरी ऑफ डिक्लाईन्स, न्यू  सोसाईटी पब्लिशर्स २००७

[2] उदाहरणार्थ   

                 http://www.magharebia.com/cocoon/awi/xhtml1/en_GB/features/awi/features/2009/12/09/feature-01

                 http://www.magharebia.com/cocoon/awi/xhtml1/en_GB/features/awi/features/2011/01/04/feature-03

 [3] “ थेम्स रेवैग - ए हिस्टरी ऑफ यूनिवर्सिटी इन यूरोप, खंड १, पृ. ५.

[4] यह आधुनिकता के उस परिभाषा के संदर्भ में है जो इसे एक ऐसा युग बताती है जब पूंजीवाद और राष्ट्र राज्य की स्थापना हुई थी. शास्त्रीय पश्चिमी परिभाषा से लौकिक और स्थानिक रूप से परे हट कर  आधुनिकता  की बहुलता के विवादास्पद विमर्श के संदर्भ में यह कुछ नहीं कहता. 

[5] रोबर्ट  एंडरसन- द आयडिया ऑफ़ ए यूनिवर्सिटी टुडे , हिस्टरी एंड पोलिसी, मार्च २०१० http://www.historyandpolicy.org/papers/policy-paper-98.html

[6] "विश्वविद्द्यालय के  संकट " वाक्यांश के साथ भ्रमित न हो, जिसे उदहारण केलिए एडू-फैक्टरी ने संघर्ष के संदर्भ  में इस्तेमाल किया है  

         www.edu-factory.org/edu15/webjournal/n0/webjournal.pdf 

[7] जान एल रुडोल्फ :  साइंटिस्ट इन द क्लासरूम - द कोल्डवार रिकंसट्रकशन ऑफ अमेरिकन साइन्स , पाल्ग्रेव , न्यूयोर्क , २००२, पृ. १६८-१७५ .

[8] उपरोक्त 

[9] ९ मई १९५० का राबर्ट शुमान प्रस्ताव , शुमान प्रोजेक्ट , http://www.robert-schuman.eu/declaration_9mai.php

[10]  प्रश्न और उत्तर : "ई. यु. एनर्जी प्लान्स " बीबीसी, ९ मार्च , २००७, http://news.bbc.co.uk/2/hi/europe/4783996.stm

[11] यूरोपीय शोध संस्थानों की प्रतिस्पर्धात्मकता बनाए रखने के लिए वैज्ञानिक शोध कार्यक्रमों पर आधारित ई. आर. ए यूरोपीय संघ क संसाधनों को एकीकृत किये जाने की एक प्रणाली है . ई. आर. ए. और यूरोपीय उच्च शिक्षा  क्षेत्र कई तरीकों से आपस में जुड़े हुए है. अलग अलग बिन्दुओं पर केन्द्रित होने के बावजूद समान क्षेत्रों में इनके उद्देश्य और कार्य करने के तौर तरीके समान है. फ्रेमवर्क यूरोपीय संघ द्वारा ई.आर.ए. के सहयोग के अनुदानित कार्यक्रम है . आई. टी. ई. आर. पर केन्द्रित होते हुए नाभिकीय विकास फ्रेमवर्क प्रोग्राम का मुख्य  उद्धेश्य है . देखें  - यूरोपियन कमीशन, " ऍफ़ पी ७: टूमौरोस आंसर्स स्टार्ट टुडे"

         http://ec.europa.eu/research/fp7/understanding/index.html 

[12] हौफ्बर्ग और इसके आस्ट्रो हंगेरियन साम्राज्य के साथ सम्बन्ध इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं कि यह किसी यूरोपीय शक्ति के  साम्राज्यवाद की पहचान अलग से नहीं करता , बल्कि ऐसे यूरोपीय साम्राज्यवादी विस्तार का प्रतिनिधित्व करता है जो यूरोप के बड़े भूभाग पर फैला था , और जो यूरोपीय संघ के वतर्मान विस्तारवादी स्वरुप से मेल खाता है . यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र की संरचना और इसकी परिधि के साथ साथ वियना में  हुए विरोध प्रदर्शन , भाषणों और नाकेबंदी के बारे में विस्तार से पढने के लिए देखें :

- लीना दोकुजोविच और एडुअर्ड फ्रीडमैन , " फोर्टीफाईड नोलेज : फ़्राम सुप्रानेश्नल गवर्नेंस टू ट्रांस्लोकल रेसिस्टेंस " वर्ल्ड्स एंड नॉलेज आदरवाइस , वाल  ३, दोजिअर २ : ओंन यूरोप , एडुकेशन , ग्लोबल कैपिटलिस्म  एंड  आईडीयौलजी , एड. मरीना ग्राजेनी , ड्यूक यूनिवर्सिटी , जुल. २०१०.

          http://trinity.duke.edu/globalstudies/wp-content/uploads/2010/09/DokuzovicFreudmannGrzinicWKO3.2.pdf 

[13] ओस्सिना  अलिदू , ज्योर्ज काफेंजिस , सिल्विया फेदरेसी ,( एड.), : ए थोउसैंड फ्लावर्स : सोशेल स्ट्र्गल्स अगेंस्ट स्ट्रक्चरल एडजस्टमेन्ट इन अफ्रीकन युनिवर्सिटीस, अफ्रीका वर्ल्ड प्रेस , २००० , पृ . xii  .

[14] ओस्सिना अलिदू , ज्योर्ज काफेंजिस , सिल्विया फेदरेसी ,( एड.), : ए थोउसैंड फ्लावर्स : सोशेल स्ट्र्गल्स अगेंस्ट स्ट्रक्चरल एडजस्टमेन्ट इन अफ्रीकन  युनिवर्सिटीस , अफ्रीका वर्ल्ड प्रेस , २००० , पृ. ४ पर ज्योर्ज काफेंजिस" द वर्ल्ड बैंक एंड एडुकेशन इन साउथ अफ्रीका "

[15] उपरोक्त , " द वर्ल्ड बैंक एंड एडुकेशन इन साउथ अफ्रीका " पृ. ३-१८ 

[16] उपरोक्त पृ. १६ 

[17] विश्व बैंक के शोधकर्ताओं ने यह भी इंगित किया है कि प्राथमिक शिक्षा में किये गए कुल निवेश का सामाजिक रिटर्न २८% था , तृतीयक स्टार  पर पूरे का १३% था . एवं , उच्च शिक्षा में कुल सरकारी निवेश का सामाजिक रिटर्न १३% था, जबकि उच्च शिक्षा में निजी निवेश का सामाजिक रिटर्न ३२% था. " उपरोक्त पृ. ५.

[18] उपरोक्त पृ. १० .

[19] देखें - इमैनुएल पोलेती  " मोर  ऑयल, लेस माइग्रन्ट्स ", अंक ४६३ ,पाम्बजुका  न्यूज , http://www.pambazuka.org/en/category/features/61239 

       "फ्रीडम नॉट फौंटेक्स"    http://no-racism.net/article/3725/

[20] भारत में सिंगरौली जिले में "विकास "के विश्लेषण में हमें इन नीतियों के क्रियान्वयन का एक डरावना उदाहरण प्राप्त  होता है , जिस में गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है : " पीढियां से अपने ज़मीन पर रहने वाले परिवारों के लिए अपनी जगह से उजाड़ा जाना और बिलकुल ही किसी नयी अपरिचित जगह पर भेज दिए जाने से ज्यादा बुरा और दर्दनाक कोई और सपना नहीं हो सकता. परिवारों को बिलकुल ही ऐसे व्यवसाय का विकल्प देने से ज्यादा दुखदायी कुछ और नही हो सकता , जो व्यवसाय उन्होंने पहले कभी न किया हो. फिर भी उन्हें विस्थापित होना पडेगा , क्यों कि वे परिवार जिस ज़मीन पर है , उसकी आवश्यकता विकास कार्यो के लिए है , और उन्ही विकास कार्यो से आम लोगों की सम्पन्नता और देश की प्रगति  संभव हो पायेगी . अत: , विस्थापित होनेवाले लोग अपने समुदाय और राष्ट्र हित में एक महान त्याग कर रहे है .  विस्थापित  स्वयं कठिनाई और दबाव में एक अनिश्चित भविष्य झेलते है ताकि दूसरे लोग आर्थिक रूप से बेहतर और खुशी से रह पाये." कॉस्ट ऑफ़ डेवलेपमेंट : दी एफ्फेक्ट ऑफ़ बिग जिजैनटक प्रोजेक्ट्स इन सिंगरौली , सृजन लोकहित समिति , सिंगरौली , इंडिया .

[21] तेंग फी , " हिस्टोरिकल रेस्पोंसिबिलिटी " फ़्राम ए पर्सपेक्टिव ऑफ़ पर  कैपिटा क्युमुलेटिव एमिशन्स " त्सिंघुवा यूनिवर्सिटी ,२००९ ; 

                       http://unfccc2.meta-fusion.com/kongresse/090601_SB30_Bonn/downl/090604china.pdf

[22] "क्लाईमेट  डेब्ट : द बेसिस ऑफ़ फेयर एंड इफेक्टिव सलूशन टू  क्लाईमेट  चेंज " द प्लुरीनैशनल स्टेट ऑफ़ बोलिविया , प्रेसेंटेशन टू टेक्नीकल ब्रीकिंग ऑन हिस्टोरिकल रेस्पोंसिबिलिटी, यूनाईटेड  फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लामेट चेंज " पृ ५,    http://unfccc.int/files/meetings/ad_hoc_working_groups/lca/application/pdf/4_bolivia.pdf

[23] “लैंड टू द ग्रेबर : द राईस ऑफ़ द निओ -गेबार सिस्टम ",२४ नव . २००९  : http://gadaa.com/oduu/1719/2009/11/24/ethiopia-land-to-the-grabber-the-rise-of-the-neo-gebbar-system/", संदर्भ http://www.washingtonpost.com/wp-dyn/content/article/2009/11/22/AR2009112201478.html;

उच्च शिक्षा और भूमि हड़पने के बीच सीधा संबंध देखने के लिए देखें : क्लेयर प्रोवोस्ट एंड ज़ोन विडाल , " यु. एस. यूनिवर्सिटीस इन आफ्रिका लैंड ग्राब " 

   http://www.guardian.co.uk/world/2011/jun/08/us-universities-africa-land-grab

[27] ये लोक विद्या जन आन्दोलन ( पीपल्स नॉलेज मूवमेंट ) के द्वारा रखी गयी कुछ मांगें है . 

            http://vidyaashram.org/; http://lokavidyajanandolan.blogspot.com/